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रूठते-मनाते ही सही लेकिन नदी के दो किनारों की तरह

रूठते-मनाते ही सही लेकिन 
नदी के दो किनारों की तरह 
बहुत दूर तक चले हैं हम एक साथ।
वो चाहे अगर तो आगे भी 
सफ़र कर सकते हैं हम एक साथ ।
लेकिन इस सफ़र की कोई मंज़िल नहीं,
इस सफ़र का कोई हासिल नहीं, 
क्या वो दिल से क़ुबूल कर सकता है ये बात??
और ये क़ुबूल करने के बाद फ़िर 
क्या हम चल सकते हैं एक साथ ??

©Sh@kila Niy@z
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