काश इन पीड़ित अभागे प्रवासी मजदूरों को उजालों भरी जिन्दगी मिल जाती जो अंधेरों मे रहते रहते देखने की सामर्थ्य खो चुके हैँ जो विवश है. भूखे पेट नंगे पाँव पैदल चल कर . अपने गांव तक की लम्बी दूरी तय करने को... किस बुरी तरह . पथरा चुके हैँ उनके खुशक होंठ. और जो बिना पतवार की किश्ती मे बैठ मझधार मे डूबने का मन बना चुक़े हैँ आश्चर्य उनकी सुध लेने ये. राजतंत्र अ भी तक मूक और असंवेदनशील बना हुआ हैँ अभागे प्रवासी मजदूर.......