ग़ज़ल मुझमें अजीब सी बैचेनी घर कर गई, खामखां इधर की बाते उधर कर गई। ये जमाना है ही आदतन तमाशबीन, आज कहानी पार हर शहर कर गई। बस सुना ही था दीवारों के कान भी है, ये कहावत यकायक कहर कर गई। मज़ा-ए-जाम-ए-इश्क़ की भी सीमा है, उससे ज्यादा असर-ए-जहर कर गई। अर्ज़-ए-कश्मकश है कि अब क्या करे? ये मुहब्बत मुश्किल हर पहर कर गई। जीना भी नहीं ओ मर भी सकते नहीं, ये ज़िन्दगी मुझे मजबूर मगर कर गई। राही भी तन्हा है खड़ा उस दो राह पर, जहां से बेशुमार हस्तियां गुजर कर गई। #बैचेनी #आदतन #तमाशबीन #यकायक #मज़ा_ए_जाम_ए_इश्क़ #असर_ए_जहर #अर्ज़_ए_कश्मकश