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इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से सर उठाकर फ़लक को देख

इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से
सर उठाकर फ़लक को देख सको
 अपने टुकङे उठाओ दाँतों से
 ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ 
छीलते जाओ रेत से 
अफ़शाँ वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर 
तोङता जा रहा है टुकङों में

ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते 
ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों

Gulzar

©Krishnadasi Sanatani
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