काश समय का पहिया घूम , फ़िर से वो बचपना जी लेती, मां की पल्लू पकड़ कर पीछे पीछे उनके दौड़ जाती,छोटी छोटी बातों पर रूठ जाती ,सबसे पहले तब रोटी मुझे वो खिलाती, पापा के नज़रों से डरी सहमी सी रहती,सुबह उठती तो मा की गोदी पाती, स्कूल ना जाने के बहाने बनाती, फ़िर भी वो मा के आंखों के डर, और उसके अंदरके प्यार से मुंह फुला कर चली ही जाती, सहेलियों के साथ मस्तियां करती, क्लास के बीच हमारी बातें होती, तब टीचर की डांट पड़ती, और हमें बाहर खड़े होने की सजा मिलती, पापा आते, मा भी आती, प्रिंसिपल से शिकायत होती,फ़िर भी हम मजे ही करते,भाई बहन से झगड़ा होता, रिमोट की खींचातानी हो या फ़िर एक पेंसिल की चोरी हो, जो जीत गया वो तो ख़ुश हो जाता, बाकी रो रो कर शिकायत की लाइन लगाते। वो भी क्या दिन थे, जब दादी के साथ कोहरे मे भी उनका झोला उठा कर बनारस के घाट पर जाते, गंगा मैया की पूजा कर के सदबुद्धी को पाते थे, ताई ताऊ, चाचा चाची और सभी भाई बहनों के साथ खुशियां गम सब हम तब एक साथ मनाते, गरमी की छुट्टियों में जब नानी घर को जाते सबसे बड़े भैया चाक और स्लेट पकड़ाते, ना चाहते हुए भी छुट्टी में भी पढ़ने को मिल जाता। मामा मौसी उनके बच्चों के साथ खूब खेल हम खेला करते, बुआ के गाव जाकर, बस, जीप की सवारी करते, वहां की सौंधी खुशबू में मिट्टी के घर बनाते, गुड़िया गुड्डा के खेल खेल कर पकवान खूब बनाते, आम, जामुन को ईंट मार कर खूब फल हम खाते, काश बचपन के सफ़र को एक बार फ़िर से जी लेते। #मेराबचपन