ग़ज़ल: "हुस्न-ओ-शबाब" चाहता हूं तेरे लिए इमरोज़ कुछ न कुछ लिखूं, चाहता हूं तेरे लिए रोज़ कुछ न कुछ लिखूं। तेरी नर्गिसी आँखों में झलकता है ज़ाम-ए-इश्क़, चाहता हूं तेरी आँखो पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरी रेशमी जुल्फें सा अहसास है तुझसे मोहब्बत, चाहता हूं तेरी जुल्फों पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरी उभरे रुखसार से सजती है क़ातिल मुस्कुराहट, चाहता हूं तेरे रुखसार पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरे हुस्न-ए-उरोज पर मरती है कई जवानियाँ, चाहता हूं तेरे उरोज पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरे बोसा-ए-लब से ज्यादा सुरूर-ए-इश्क़ कहाँ, चाहता हूं तेरे लबों पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरी खूबसूरती-ए-जिस्म पर फ़िदा है सारा जमाना, चाहता हूं तेरे जिस्म पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। तेरे कशिश-ए-हुस्न-ओ-शबाब से मदहोश है राही भी, चाहता हूं तेरे शबाब पर रोज कुछ न कुछ लिखूं। ग़ज़ल: "हुस्न-ओ-शबाब" चाहता हूं तेरे लिए इमरोज़ कुछ न कुछ लिखूं, चाहता हूं तेरे लिए रोज़ कुछ न कुछ लिखूं। तेरी नर्गिसी आँखों में झलकता है ज़ाम-ए-इश्क़, चाहता हूं तेरी आँखो पर रोज कुछ न कुछ लिखूं।