मन की गहराई की थाह पाना उतना ही कठिन है जितना समुन्दर से मोती निकाल लेना सरल है दर्द के इर्द गिर्द परिक्रमा करते हुए जीवन बीत रहा है लेकिन ये कवायद आदमी क़ो माजने के लिये कितनी अनुकूल है कभी कभी अनकही विवशताये अंतरतम क़ो छलनी कर देती है फिर भी आदमी सह लेता है क्योंकि उसका धरातल ही उसका सम्बल है जीबन की दुविधाओं क़ो शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन धंसा कर झुठलाया नही जा सकता कभी कभी दर्द भी दवा बन कर रुग्ण काया क़ो निर्मल कर देता है ©Parasram Arora दर्द की परिक्रमा