क्यूँ प्रभा है रूठी प्रथा से,जो अरुणिमा ये न लाती, गिरि श्रेणियों में भी देखो एक रश्मि न दृश्य होती। इन गिरिवरों की राह में पर्वतों की ढाल में किंकिणों के मार्ग में,हर घङी अविराम में। मैं अकेली चल रही हूँ ,हर जगह सुंसान में । हर गुफा ,हर कंदरा, हर कोण इस भूमि का, जिसमें कि द्युति रश्मि कैद हों! ढूँढ लाऊँगी उन्हें मैं , पाताल हो या स्वर्ग हो। भीङ में हूँ मैं अकेली, अमावस सी रात है। काल जैसी इस पवन में, ही भयानक राज़ है। काली निशा का तिमिर व्यूह , क्यूँ न होता उज्ज्वल कभी क्यों मयंक है हार जाता इस भीष्ण अंधकार से क्यूँ प्रभा है रूठी प्रथा से जो अरुणिमा ये न लाती