वो कहावत है ना कि प्रेम की न तो समीछा हो सकती है ना ही समय के प्रवल प्रहार से हीं समय घवङा सकती हैं,यह प्रेम हीं तो हैं साहेव,इंसान का सबकुछ लुट लेती हैं फिर भी इंसान परम संतोष की अनुभुति करता हैं!!
मदन मोहन(मैत्रेय)
मिलते नही वो रोज कहते भी कुछ नही,
सब्रे हुजुर समझे बस यह मेरा खयाल है!
सायद इन पंक्तियों मे जीवन की गूढता छिपी हुई है,इश्क का मर्ज ऐसा होता हैं जनाब कि कहें क्या हलकी सी आहट पर भी दिल मचल उठता है!लगता है कि चाहतो के समंदर मे बस गोते लगाते रहें,यह इश्क हीं तो हैं साहेव कि हजारो हजार कहानिया लीख दी गई,लेकिन आज तक इसके पन्ने कोई भी नही भङ पाया!
बदली भी ऐसी हीं थी,गदराई हुई अल्हर सी जवानी का तुफान लिये जब वो चलती थी ना, तो गली मे सन्नाटा सा छा जाता था,हर कोई चाहे वो जवान हो या बुढा,उसके जवानी के सागर मे गोते लगाने को बेताब था, लेकिन वो किसी को भी घास नही डालती थी,ऐसी तो बात विल्कुल भी नही थी कि उसके दिल मे अँगङाईयां ना उठती हो,गांव के हीं लङके धवल पर उसका मन लट्टु था!वो अपनी जान से भी ज्यादा उसे चाहती थी!