गुंगे बहरों की भीड़ देख देख कर! शायद मै भी गूंगा बहरा होने लगा हुँ कितने अत्याचार सहा है देखा है बस दर्द समेट कर जीने लगा हुँ रिश्तों को बचाने की चाहत संबधो की गरमाहट रोक लेती थी हर उस प्रतिकार को जिसे करना था पर क्या था जो मेरे अंदर ही कुलबुलाता रहा हर अत्याचार को क्युँ मै झुठलाता रहा! हाँ मै दोषी हुँ हर उस अत्याचार का जो मैने देख कर भी अनदेखा किया है घुट घुट कर जिया ह़ुँ पर कब तक गूँगा बहरा रहुंगा ! कब तक अत्याचार सहुंगा नहीं नहीं अब और नही अब गूंगा बहरा नहीं हुँ संजय श्रीवास्तव गूंगा