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बिखर जाता हूँ देख क़ुदरत की अनुपम छटा ,मैं और भी न

बिखर जाता हूँ 
देख क़ुदरत की अनुपम छटा ,मैं और भी निखर जाता हूँ,
ओढ़ कर स्वर्णिम सी आभा ,मैं भी धरा पे बिखर जाता हूँ,

आता हूँ सजाने दिलों में, नित्य एक नई उमंग और लहर,
जगाने  उनींदी आँखों को , नित   प्रथम   पहर  आता हूँ,

होता है घनागम जब जब ,मैं झाँकता हूँ बादलों की ओट से,
रुत   आती   है   बासन्ती जब ,मैं और भी सँवर जाता हूँ,

वर्षा ऋतु भी जब  मुझे   रोकती है ,धरा की ओर जाने से,
बनकर  सतरँगी   इंद्रधनुष , मैं   अंबर   पर सज जाता हूँ,

होता है आगमन रजनी का , लौट जाता हूँ मैं घर की ओर,
जब  छाए   कुहासा धरती पर ,मैं देखकर सिहर जाता हूँ।।

                                                         पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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